चंपावत। 22 अप्रैल को मनाए जाने वाले पृथ्वी दिवस पर हम यह सोचने को विवश होते जा रहे हैं कि लगातार पृथ्वी पर अत्याचार करते हुए स्वयं को किस दिशा की ओर ले जा रहे हैं? हमारे पुराणों में “समुद्रवसने देवी पर्वतस्थनमंडले ।
विष्णुपत्नी नमस्तुभ्यं पादस्पर्शं क्षमस्वमे” का वर्णन किया गया है, यानि पृथ्वी पर चरण रखने से पूर्व उससे क्षमा याचना करते हैं। यह सोच आज के वैज्ञानिक युग में कहां चली गई? हम उसी नाव के तख्त उखाड़ते जा रहे हैं, जिसमें हम स्वयं सवार हैं। कल-कल छल-छल करती नदियों से निकलने वाली जलधाराओं का स्वर और चारों ओर फैला हरियाली का साम्राज्य, जल, जंगल, जमीन एवं वन्यजीवों में परस्पर एक-दूसरे के बीच कितना सुंदर संतुलन बना रहा होगा! हर वक्त जीवन में ताजगी लाने वाली हवाएं, जहां कोई पर्यावरण प्रदूषण शब्द को जानता तक नहीं था। हमारे पूर्वजों ने जंगलों के बीच मां भगवती का लाल ध्वज लगा कर जंगलों को सुरक्षित रखने के लिए उपाय किए जाते थे। हम अपना गौरवशाली अतीत गंवाते हुए प्राकृतिक आपदाओं को झेलते आ रहे हैं।
लगातार गहराते जल संकट से जूझते चले आ रहे हैं। नदियों एवं झरनों का स्वर शांत हो गया है। प्रकृति से जल, जंगल, जमीन का नैसर्गिक अधिकार आज का विकासशील मानव छीनता जा रहा है। पर्यावरण पर प्रदूषण का पहरा हो चुका है। ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन जैसे शब्द हमारी आम बोलचाल की भाषा के शब्द बन चुके हैं। पर्यावरण संरक्षण के नाम पर एक धंधा चल पड़ा है, जिसमें सरकारी धन को ठिकाने लगाने की प्रवृत्ति विकसित होती जा रही है। प्रकृति के अवयवों का अनुपात बिगड़ चुका है। यूं कहा जाए कि धरती का वजूद समाप्ति के कगार तक पहुंचता जा रहा है। तीन रोज पहले हमने लोकतंत्र का महापर्व मनाया था, लेकिन पृथ्वी का स्वरूप बचाने को लेकर किसी भी सियासी दल के एजेंडे में यह महत्वपूर्ण विषय रहा ही नहीं।

पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागरूकता पैदा करते आ रहे शिक्षक प्रकाश चन्द्र उपाध्याय का कहना है कि
जब तक मनुष्य एवं पृथ्वी के बीच में एक-दूसरे के पूरक बनने के रिश्ते बने हुए थे, तब न पृथ्वी आहत थी और न ही पर्यावरण प्रभावित हुआ। जबसे मानव ने प्रकृति से लालच कर उसका दोहन शुरू किया तभी से प्रकृति के गुस्से के रूप में हम तमाम दैवीय आपदाएं झेलते आ रहे हैं।

पर्यावरणविद गणेश पुनेठा का कहना है कि हम अतीत के स्वर्णिम युग को पीछे धकेलते हुए ऐसे युग में प्रवेश करते जा रहे हैं जहां हमारी सांसे कभी भी हमारा साथ छोड़ सकती हैं। धरती माता अनादि काल से हमारा पालन पोषण करती आ रही है। वह हमसे कुछ नहीं मांगती नहीं , जबकि सब कुछ हमें देते हुए हमारा वजूद बनाए हुए है।

By Jeewan Bisht

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