लोहाघाट। धर्म एवं आध्यात्मिक क्षेत्र में समृद्ध उत्तराखंड की देवभूमि में प्रकृति की प्रत्येक पर्वत श्रृंखला के आसमान छूने वाली चोटियों, कल-कल करते झरने, सघन आच्छादित बन, शुद्ध पर्यावरण, दैवीय शक्ति एवं ईश्वरीय सत्ता की उपस्थिति से सीधा साक्षात्कार करा देती हैं । लोहाघाट नगर के उत्तर पश्चिम में लगभग 4 किलोमीटर की दूरी पर समुद्र सतह से लगभग 2500 मीटर की ऊंचाई पर स्थित झूमा देवी में मां नंदाष्टमी का मंदिर अनादिकाल से स्थानीय बाराकोट एवं लोहाघाट क्षेत्र के श्रद्धालुओं की आराधना का प्रमुख केंद्र रहा है। प्रत्येक वर्ष भादों में नंदाष्टमी के दिन यहां विशाल मेला लगता है । पिछले 16 वर्षों से यहां के युवाओं द्वारा चार दिवसीय झूमादेवी नंदाष्टमी महोत्सव आयोजित किया जा रहा है। क्षेत्र के इतिहास, संस्कृति एवं धार्मिक क्रियाकलापों की जानकारी रखने वाले, वर्तमान में चंपावत कलेक्ट्रेट के मुख्य प्रशासनिक अधिकारी भगवत प्रसाद पांडे के अनुसार वर्तमान मंदिर का निर्माण ग्राम सभा पाटन-पाटनी तथा रायकोट महर के श्रद्धालु भक्तों को स्वप्न में दिए दृष्टांत के अनुसार दैवीय प्रेरणा से आज से लगभग सवा सौ वर्ष पूर्व किया गया था। जबकि इस स्थान से और अधिक ऊंचाई पर कफ़फाड़ नामक चोटी पर देवी की मूल शक्ति का अनादिकाल से होना बताया जाता है।
ऊंचाई पर होने के कारण वहां कम ही लोग जाया करते थे इस स्थान में ही देवी का मूल स्वरूप होना माना जाता है। अत्यधिक दुर्गम होने एवं दैवीय कारणों से मन्दिर का निर्माण वर्तमान मंदिर परिसर में ही किया गया। झूमाधुरी के
अत्यधिक ऊंचाई पर स्थित होने के कारण इस स्थान से हिमालय की नंदा देवी, त्रिशूल, पंचाचूली सहित तमाम ऊंची चोटियों के साथ पिथौरागढ़, चंपावत, अल्मोड़ा एवं नैनीताल की ऊंची पहाड़ियों को आसानी से देखा जा सकता है। श्री पांडे के अनुसार इस स्थान से कुछ दूरी पर गुप्तगंगा नामक एक झरना बहता था, जो कालांतर में लुप्त हो गया है । आज साक्षी के रूप में यहां पर एक पानी का नौला शेष रह गया है। लोगों के अनुसार यहां पर अदृश्य शक्ति द्वारा शिकार करना मना किया गया है। मंदिर की तलहटी पर विश्वदेव का मंदिर है। इस स्थान पर नंदाष्टमी के दिन पाटन पाटनी एवं रायकोट से निकलने वाली देवी रथ यात्राएं विश्राम करती हैं, जहां पर दूध,चावल और गंगाजल का देवडांगरों को भोग लगाया जाता है। भूतकाल में बताया जाता है कि यहां पर भोग लगाते समय कुछ अदृश्य शक्तियां दिखाई देती थी, जिन्हें पुकारने पर वह गायब हो जाती थी। झूमादेवी स्थित नंदादेवी का मंदिर निःसंतान दंपतियों के आश्चर्यजनक रूप से वारदायनी है, जिसका कारण मंदिर निर्माण के पीछे निःसंतान दंपत्ति की कहानी जुड़ी हुई है। इसके लिए बताया जाता है कि पाटन ग्राम की एक निःसंतान राजमिस्त्री को स्वप्न में भगवती ने दर्शन देकर यहां पर मंदिर बनाने को कहा। राज मिस्त्री के द्वारा मंदिर बनाने पर उसको पुत्र की प्राप्ति हुई। इस तरह सवा सौ वर्ष पूर्व झूमादेवी मंदिर का निर्माण हुआ। तभी से यहां पर निःसंतान दंपत्तियां पूर्ण शुद्धता के साथ दो दिन तक उपवास रखती हैं और मेले से पूर्व संध्या में जागरण करती हैं। दूसरे दिन रथ की परिक्रमा करती हैं। माना जाता है कि जिन निःसंतान दंपत्तियों को संतान प्राप्ति होती है, उन्हें इस दौरान इसकी अनुभूति भी होने लगती है। ग्राम सभा पाटन पाटनी से लगभग 2 किलोमीटर की दूरी पर स्थित ऊंची पहाड़ी पर झूमाधुरी के मंदिर तक जाना भी किसी रोमांच से कम नहीं है। यही कारण है कि यहां पर भगवती व महाकाली के डांगरों के रथ को रस्सों से खींचा जाता है। यह किसी दैवीय चमत्कार से कम नहीं है। डांगरो के अवतरण की कहानी भी रहस्यपूर्ण है। दोनों स्थानों पर डांगरों में देवी का अवतरण वंशानुक्रम से होता है। पाटन पाटनी एवं रायकोट के लोगों में मां भगवती एवं मां महाकाली अवतरित होती आ रही हैं। यहां झुमाधुरी नंदाष्टमी महोत्सव आयोजित होने के बाद अब इस मंदिर में भीड़ को संभालना काफी मुश्किल हो गया है। अब मंदिर की तलहटी खाल में भी मेला आयोजित होता है। इसी स्थान में महोत्सव के सभी कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं।