लोहाघाट। उत्तराखण्ड संस्कृत अकादमी के द्वारा संस्कृत भाषा के प्रचार, उन्नयन एवं इसे पुनः देववाणी का स्वरूप दिलाने के उद्देश्य से उत्तराखंड की लोक कलाओं में संस्कृत भाषा का प्रभाव विषय पर आयोजित ऑनलाइन संगोष्ठी में विद्वानों का कहना था कि देववाणी संस्कृत में ही विश्व कल्याण का भाव छुपा हुआ है। समय की गति एवं बदलती हुई परिस्थितियों ने भले ही सभी भाषाओं की जननी रही संस्कृत को हाशिए में खड़ा करने का प्रयास किया गया लेकिन भारतीय संस्कृति, सांस्कृतिक मूल्यों एवं विरासत के रग रग में घुली भाषा जहां पर भी विद्यमान या बोली जाती है वहां यह हीरे के समान अपनी अलग चमक देती आ रही है। मुख्य वक्ता के रूप में बोलते हुए कुमाऊं विश्वविद्यालय नैनीताल की संस्कृत की विभागाध्यक्षा प्रो.जया तिवारी ने अनेक उदाहरणों से यह स्पष्ट किया कि संस्कृत भाषा का जन्म ही सृष्टि के साथ हुआ है। उन्होंने आगे कहा कि संस्कृत अत्यन्त प्राचीन और सार्वभौमिक भाषा के रूप में प्रख्यात रही है। संस्कृत के पग पग में चिह्न हमें लोक कला में मिला करते हैं। हमारी पूजा पद्धति से लेकर लोक भाषा में भी संस्कृत के शब्द अनुस्यूत हैं।

विशिष्ट अतिथि के रूप में प्रख्यात वक्ता एवं वर्तमान में राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय चम्पावत के संस्कृत विभागाध्यक्ष प्रो. विनय विद्यालंकार ने कहा कि संस्कृत भाषा वैदिक काल से अविच्छन्न रूप से प्रवाहित होती रही है। हिमालयी भू भाग पूर्व से ही ऋषियों की कर्म स्थली रही है और आज भी संस्कृत का स्पष्ट प्रभाव यहां के निवासियों में भी दिखाई देता है।

विशिष्ट अतिथि एवं अपनी विद्वता के लिए राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित किए गए डॉ कीर्तिवल्लभ शक्टा ने कहा कि द्वितीय राजभाषा के होने से उत्तराखण्ड और संस्कृत दोनों का महत्व बढ़ गया है। उन्होंने कहा सभी भाषाओं की जननी होने के कारण इस भाषा को मातृभाषा का रूप दिए जाने में किसी अन्य भाषाओं को कभी कोई आपत्ति नहीं रही है। उन्होंने दावा किया कि जिस दिन संस्कृत भाषा को देव वाणी के रूप में पुनः स्थापित किया जाएगा उसी दिन सभी लोगों में विश्व कल्याण की भावनाओं का स्वयं अंकुरण होने लगेगा। कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए पीजी कॉलेज की प्राचार्य प्रो. संगीता गुप्ता ने कहा जो भाषा अन्य सभी भाषाओं की जननी रही है उस भाषा के रंग रूप हमारे लोक जीवन, संस्कृति एवं सामाजिक पर्यावरण में देखने को मिलते हैं। उन्होंने कहा देवभूमि उत्तराखण्ड के कण-कण में जिस प्रकार शंकर के दर्शन होते हैं ठीक उसी प्रकार यहां की प्रकृति एवं संस्कृति में देववाणी संस्कृत का अंदर तक समावेश दृष्टि गोचर होता है। कार्यक्रम के संयोजक एवं पीजी कॉलेज के संस्कृत विभागाध्यक्ष डॉ. कमलेश सक्टा ने सभी अतिथियों का स्वागत करते हुए कहा कि देव वाणी संस्कृत को पुनः उसका वास्तविक स्वरूप दिलाने के लिए चौतरफा प्रयास दिखाई दे रहे हैं, इससे लगता है कि यह सब ईश्वरीय प्रेरणा से ही सब कुछ हो रहा है। चम्पावत स्थित हिडिम्बा व घटोत्कच मन्दिर इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। राज्य संयोजक डॉ हरीश चन्द्र गुर्रारी ने अकादमी के द्वारा किये जा रहे विभिन्न कार्योें का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया। सह संयोजक डॉ हेम चन्द्र तिवारी ने मुख्य वक्ता के रूप में श्रोताओं को जानकारी प्रदान की। कार्यक्रम सदस्य डॉ भूप सिंह धामी ने सभी उपस्थित विद्वानों एवं प्राध्यापकों के प्रति आभार व्यक्त किया। इस अवसर पर डॉ अनीता टम्टा, डॉ लता कैड़ा, डॉ प्रकाश लखेड़ा सहित 40 छात्र छात्रायें उपस्थित रहे।

By Jeewan Bisht

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