लोहाघाट।चंपावत जिले में मौन पालन को कुटीर उद्योग के रूप में विकसित कर इसे रोजगार का जरिया बनाने की दिशा में सुस्त गति से जो प्रयास किए जा रहे हैं उसे देखते हुए अप्रैल-मई में होने वाले फ्लावरिंग सीजन का नवउद्यमी लाभ नहीं उठा पाएंगे। यदि मौसम ठीक ठाक रहा तो मार्च प्रथम सप्ताह से ही मौन बक्सों में नई कॉलोनियां,(वकछुट) निकलने लगती है। उस वक्त तक जिले में तैयारियां होने के दूर तक प्रयास नहीं दिखाई दे रहे हैं। अभी तक गांव में इस व्यवसाय से जोड़ने वाले लोगों का चयन तक नहीं हुआ है। और ना ही प्रशिक्षण की तैयारियां।जिले में कोई मौनपालन विशेषज्ञ भी नहीं है। एनजीओ इस फिराक में है कि कब वे इस काम को अपने हाथ में लें।यहां यह बताना जरूरी है कि उद्यान विभाग पूर्व में मौन पालन का कार्य एनजीओ के हाथों सौंप कर करोड़ों रुपए तो खर्च कर चुका है किंतु उसके नतीजे ढाक के तीन पात साबित हुए हैं।अभी तक इस महत्वपूर्ण कार्यक्रम की
कार्ययोजना तक नहीं बन पाई है।
चंपावत जिले के महाकाली नदी, सरयू,पनार नदियां रतिया,कोइराला,लोहावती नदी आदि तमाम घाटी वाले क्षेत्र हैं जहां मौन पालन की अपार संभावनाएं हैं। इन स्थानों में मधुमक्खियों के लिए उस समय च्यूरा व सरसों फुलती है जब जाडों में अन्य वनस्पतियां सूख जाती है।मार्च से अक्टूबर तक ऊंचाई वाले क्षेत्रों में मौन पालकों को अपने मौन बक्सो को घाटी वाले स्थानों में रखने की व्यवस्था करनी होगी। इससे वर्ष में शहद की दो बार आसानी पैदावार ली जा सकती है।
चंपावत को मॉडल जिला बनाने की दिशा में सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि यहां लंबे समय से कार्य करने वाले कईअधिकारियों का अपना कोई विजन नहीं है। सारे काम देहरादून से फरमान जारी होने के बाद ही लागू किए जाते हैं।यही वजह है कि अभी तक सीएम धामी की परिकल्पना के अनुसार कैसा मॉडल जिला बनेगा? इसका प्रारूप तैयार नहीं हो पाया है। यह बात अलग है कि सूबे के ग्राम विकास सचिव डॉ पुरुषोत्तम के चारदिनी चंपावत जिले के दौरे के बाद अधिकारियों की बैटरी अवश्य चार्ज हुई है। लेकिन जब तक आज क्या किया गया, कल क्या किया जाना है? जैसी रणनीति के तहत कार्य योजना नहीं बनाई जाएगी तो वक्त इनका इन्तजार नहीं करेगा।