लोहाघाट। उधार में ली गई भाषा एवं संस्कृति से कोई भी देश व समाज प्रगति नहीं कर सकता है। आज के विकास के दौड़ में भी हम मातृभाषा हिंदी को दिल से अंगीकार नहीं कर पाए हैं। देश भले ही 1947 में आजाद हो गया हो, किंतु मैकाले की शिक्षा पद्धति ने हमें आज भी गुलाम बना कर रखा हुआ है। विश्व में बोली जाने वाली तीसरे पायदान में खड़ी हिंदी को किसी की दया की जरूरत नहीं है। हिंदी भारत के लोगों की आत्मा में बसी ऐसी भाषा है, जो लोगों को राष्ट्रीयता, राष्ट्रीय मान व स्वाभिमान से जोड़े हुए है। देश की आजादी के बाद हममें वह संस्कार पैदा करने में कंजूसी की गई कि हमें अंग्रेजी बोलने में जो गौरव महसूस होता रहा है, उसके स्थान पर हम हिंदी जैसी सरल एवं सबको जोड़ने वाली भाषा को गौरव नहीं दिला पाए। यह बात हिंदी भाषा के विद्वान एवं राजकीय पीजी कॉलेज के हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ दिनेश राम ने कही। उनका कहना है कि हमारी सोच एवं पाश्चात्य संस्कृति के अंधानुकरण ने विराट दृष्टिकोण रखने वाली हिंदी भाषा की चमक को धूमिल कर उसे शरणार्थी बनाकर रखा हुआ है। हिंदी विभागाध्यक्ष के अनुसार वर्ष 1991 में अंग्रेजी के हिमायती लोगों ने इसे मातृभाषा तो घोषित कर दिया लेकिन इसे पनपने न देने का षडयंत्र जारी रखा। हिंदी को चौतरफा घेरने के बावजूद भी यह उस नदी की तरह अपना मुकाम बना रही है, जैसे नदी को समुद्र से मिलने के लिए कोई नहीं रोक सकता है। डॉ दिनेश ने कहा कि आज भारतीय मूल्यों व आदर्श का जिस प्रकार विदेशों में परचम लहरा रहा है, ठीक उसी प्रकार वह दिन दूर नहीं जब हिंदी विश्व की भाषाओं की प्रथम पंक्ति में खड़ी होगी। इसके लिए देश के माननीय प्रधानमंत्री ने विश्व पटल पर स्वयं हिंदी भाषा में विदेशियों को संबोधित करने से इसके द्वार खुल गए हैं। हिंदी को दुनिया के श्रेष्ठ भाषा बताते हुए उन्होंने दावा किया कि आज देश में जो वैचारिक मतभेद उभर रहे हैं, इसका स्थाई समाधान हिंदी भाषा को हृदय से स्वीकार किए जाने से ही दूर किया जा सकता है।