लोहाघाट। हिंदी भाषा को किसी की दया की जरूरत नहीं है। साल भर अंग्रेजियत में दूबे लोग, हिंदी दिवस पर उसका महत्व बताने लगते हैं। हिंदी हमारी जुबान की भाषा ही नहीं पहचान भी है। इसका संबंध हमसे ठीक वैसा ही है जैसा आत्मा का परमात्मा के साथ होता है। इससे हमारा अस्तित्व जुड़ा हुआ है। यदि पीछे मुड़कर देखें तो 1952 में हिंदी दुनिया के पांचवें पायदान पर थी, जो वर्ष 1962 में यह तीसरे स्थान पर आ गई है। 1991 में इसे मातृभाषा बना दिया गया। आज यह विश्व की सबसे बड़ी, ऐसी भाषा है, जिसे दुनिया के लोग बोलने में गर्व महसूस कर रहे हैं। इस भाषा के विकास में किसानों, मजदूरों, छोटे स्तर के नौकर पैशा लोगों आदि की अहम भूमिका रही है। लॉर्ड मैकाले ने भारत की पुरातन संस्कृति का तानाबाना छिन्न – भिन्न करने के लिए जिस अंग्रेजी को हम पर थोपा था, आज भी हम हिंदी के बजाय अंग्रेजी बोलने को अपना स्टेटस सैंबल बनाए हुए हैं। हिंदी हमारे देश की सांस्कृतिक, शान व धरोहर रही है। अब हिंदी के और अच्छे दिन आगए हैं। जब भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दुनिया के सभी मंचों में हिंदी में बोलकर न केवल उन्हें भारत को विश्व गुरु बनाने की ओर बढ़ा रहे हैं तो ऐसी स्थिति में हिंदी अपने मुकाम में ऐसी तेजी के साथ आगे बढ़ती जा रही है जैसे पर्वतों से निकलने वाली नदी किसी से नहीं पूछती है कि समुद्र कहां है?
हिंदी के पीछे छुपा है भारत का गौरवशाली अतीत ।
लोहाघाट। राजकीय पीजी कॉलेज की हिन्दी विभाग की युवा असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ बंदना चंद का कहना है, हिंदी हमें प्रकृति, संस्कृति, संस्कार, परिवेश, भारतीय मूल्यों, दर्शन एवं इसके गौरवशाली अतीत से जोड़ती है। हिंदी, बगैर अन्य भाषाओं से कोई द्वैष भावना ना रखते हुए अपने मुकाम तक पहुंचने के लिए दुनिया की दूसरी भाषा बन गई है। यदि हम अपने कार्य – व्यवहार में हिंदी के मर्म को बताने का प्रयास करेंगे तो तथाकथित अंग्रेजी बोलने वालों को तो शर्म का अनुभव होना स्वाभाविक हो जाएगा। और हिंदी को आगे बढ़ने के लिए द्वार स्वयं खुलते जाएंगे।
प्रधानमंत्री ने बढ़ाया है हिंदी बोलने वालो का मान व सम्मान।
लोहाघाट। केंद्रीय विद्यालय के हिंदी प्रवक्ता खादिम हुसैन का कहना है कि हिंदी की चमक व धमक को कभी कम नहीं किया जा सकता। आज देश व विदेश के लिए हिंदी भाषी लोग प्रधानमंत्री की उस भाव धारा के कायल बने हुए हैं, की किस प्रकार दुनिया में जाकर उनके द्वारा स्वयं हिंदी बोलकर सात समुद्र पार हिंदी भाषा का मान और सम्मान बढ़ता जा रहा है। दरअसल हिंदी की स्थिति उस स्वर्णकार की तरह है जो सोने को आग में खूब तपाता तो है जिससे सोने की चमक बढ़ती रहती है। लेकिन स्वर्णकार के माथे में राख उड़ कर आती है। ठीक यही स्थिति हिंदी का विरोध करने वालों की हो रही है।