चंपावत। जिन जंगलों को हमारे पूर्वजों ने पीढ़ी दर पीढ़ी बचाते हुए हमें सौंपा था, आज यहां के हरे-भरे जंगल कोयले की खान बनते जा रहे हैं। गर्मियों में ठंडी हवा के स्थान पर गर्म हवाएं चल रही हैं। पूरे वातावरण में धुएं ने अपना साम्राज्य कायम कर यहां आने वाले पर्यटकों की राह ही नहीं रोकी है बल्कि उम्रदराज लोगों को सांस लेने में दिक्कतें तथा आंखों में जलन एक आम समस्या हो गई है। जंगल व पानी की उपलब्धता को लेकर पहाड़ों में लोग अपनी कन्या का विवाह तय किया करते थे। आज की नई पीढ़ी क्यों जंगलों की इतनी दुश्मन बन गई है? क्यों नहीं लोगों को हरे भरे जंगलों से सुकून मिल रहा है? जंगली आग में काबू पाने के उपाय केवल फाइलों में सिमट कर रह गए, जबकि राज्य बनने के 24 साल बीत चुके हैं। पहले लोग जंगल की आग को बचाने के लिए दौड़ कर जाया करते थे। जंगलों से अपनत्व का भाव होता था। नई पीढ़ी का जंगलों से रिश्ता क्यों टूटा? इसकी वजह क्या है? इस पर कोई ध्यान नहीं दे रहा है। उत्तराखंड में अपनी अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए वन विभाग में बांज जैसे पेड़ों की उपेक्षा कर चीड़ को पनपने का पूरा अवसर दिया। इस चीड़ के वृक्ष से भले ही टाटा बिरला का रिश्ता है लेकिन आम ग्रामीण का उससे कोई मतलब नहीं रहा। यह बात अलग है कि प्रतिवर्ष जंगलों में लगने वाली आग का रटा रटाया कारण “ग्रामीण लोग चारे के लिए अधिक घास प्राप्त करने हेतु स्वयं जंगल में आग लगा देते है”, जबकि जंगली पत्तियों के सड़ने से पैदा होने वाली खाद में अधिक घास प्राप्त होती है। पहले जब हर गोठ में गाय -भैंस बंधी रहती थी, तब लोग आग लगाना तो दूर बुझाने के लिए दौड़ कर जाया करते थे। आज पलायन के चलते गांव की आबादी व पशु सिमटते जा रहे हैं। ऐसी स्थिति में ऐसा कौन निर्दय होगा? जो जंगलों को आग के हवाले कर रहा होगा। यह बात अलग है कि जंगली आग के चलते वन विभाग प्रतिवर्ष वृक्षारोपण, वन संरक्षण एवं वनों को दावाग्नि से बचाने के लिए जो करोड़ों रुपए खर्च करता है, उसका हिसाब-किताब मांगने का स्वर भी जंगली आग की तरह धुआं हो जाता है।
प्रतिवर्ष जंगलों को आग से बचाने की चिंता का समय अप्रैल से शुरू होता है और मानसून आते ही वह धुल जाता है। सरकार एवं वन विभाग ने कभी भी इस मुद्दे को संवेदनशीलता से नहीं देखा। राजनीतिक दलों के एजेंडे में तो यह बात कभी रही ही नहीं, किंतु उत्तराखंड बनने के बाद हर मिजाज की सरकारें रही, किंतु किसी ने वन विभाग से यह नहीं पूछा कि इस वैज्ञानिक युग में भी जंगलों को आग से बचाने के सार्थक प्रयास क्यों नहीं किए जा रहे हैं? यह भी दुर्भाग्य है कि राज्य को ऐसे वन मंत्री मिले हैं, जिनकी नजर वन संपदा से होने वाली आय पर तो रही लेकिन आय देने वाले पेडों को बचाने पर नहीं। गाड़ियों में बैठकर दौड़ने एवं उड़कर जंगली आग का नजारा देखने के आदी अधिकारियों को कहां फुरसत कि वो गांव के उन लोगों के बीच बातचीत कर उनसे आत्मीय रिश्ता जोड़ें,जो शताब्दियों से जंगलों को दावाग्नि से बचाते आ रहे हैं ।


लोहाघाट। आज जब पूरे उत्तराखंड के जंगल धू-धू कर जल रहे हैं किंतु मायावती वन पंचायत के सघन वनों में वन्य जीव अन्य स्थानों से आकर यहां शरण लेते आ रहे हैं। वन पंचायत मायावती का जिन भावनाओं से आश्रम के संत प्रबंध कर रहे हैं, यदि इसी भावना से अन्य लोग प्रेरित हों तो जंगलों को हर दृष्टि से बचाया जा सकता है। इस स्थान में युग पुरुष स्वामी विवेकानंद जी के 125 वर्ष पूर्व चरण पड़े थे, तब यहां का जड़-चेतन धन्य हो गया था। यहां के हर वृक्ष में स्वामी जी की आत्मा बसी हुई है।आश्रम के अध्यक्ष स्वामी शुद्धिदानंद जी महाराज कहते हैं कि यहां हमारा तो प्रकृति के बीच ऐसा रिश्ता बना हुआ है, जहां लालच के लिए कोई स्थान नहीं है। यही वजह है कि यहां के जंगल इतने सघन हैं कि उसमें सूर्य की किरणें भी प्रवेश नहीं कर पाती हैं।