लोहाघाट। पहाड़ों से प्रतिवर्ष उपजाऊ खेतों की मिट्टी की परत बरसाती पानी के साथ बहकर बंगाल की खाड़ी में पहुंच रही है। इसे रोकना सर्वोच्च प्राथमिकता में शामिल किया जाना चाहिए। यह तथ्य वैज्ञानिकों के लिए भी एक चुनौती है। यह बात पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय के डायरेक्टर डॉ अनिल शर्मा ने कृषि विज्ञान केंद्र के वैज्ञानिकों से कहीं। उनका कहना था कि बदलती पर्यावरणीय परिस्थितियों के अनुरूप खेती के तौर तरीके अपनाने के साथ पारंपरिक खेती के तरीकों की भी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए। आज भले ही हम आधुनिक तकनीक से दूध का अधिक उत्पादन कर रहे हैं लेकिन उस बद्री गाय की बिल्कुल अनदेखी नहीं की जानी चाहिए जिसके दूध में औषधिय गुण भरे हुए हैं।वैज्ञानिक शोधों से यह बात सामने आई है कि बद्री गाय के दूध एवं उससे बने घी का नियमित प्रयोग करने से व्यक्ति प्राकृतिक रूप से स्वस्थ रहता है। इस दूध और घी की बाजार में कहीं अधिक कीमत मिल रही है। बद्री गाय, प्रकृति की ऐसी देन है जो विषम स्थिति व परिस्थितियों में जीना जानती है। यदि किसान उन्नत नस्ल की गाय पालते हैं तो उनके साथ बद्री गाय को भी अवश्य पालें। पर्वती क्षेत्रों में उत्पादित वस्तुओं के बायप्रोडक्ट किसानों को अधिक मूल्य देंगे।
डॉ शर्मा का कहना था कि उत्तराखंड के पर्वतीय जिलों का यदि नियोजित तरीके से विकास की सोच पैदा की जाए तो लोग हिमाचल का उदाहरण देना भूलकर हिमाचल के लोग हमसे सीखने का प्रयास करेंगे। प्रकृति ने उत्तराखंड को सब कुछ दिया है। मानवीय अज्ञानता के कारण पर्यावरण को जो नुकसान हो रहा है उसके लिए दृष्टिकोण बदलने की जरूरत है। उत्तराखंड के समग्र विकास एवं चंपावत को मॉडल जिला बनाने के लिए अभी ऐसी अनुकूल परिस्थितियां हैं जिसमें हर क्षेत्र में विकास की नई सोच के साथ कार्य किया जा रहा है। चंपावत जिले के कृषि बागवानी, फूलों की खेती, दुग्ध उत्पादन, मोन पालन, मत्स्य पालन आदि के जरिए किसानों की आय दो नहीं तीन गुना करने के लिए लोहाघाट स्थित कृषि विज्ञान केंद्र की अहम भूमिका है, जिसे सशक्त किए जाने के लिए चौतरफा प्रयास किए जाने चाहिए। डॉ शर्मा के साथ आए जेडी डॉ संजय चौधरी का कहना था कि चंपावत जिले के किसानों में अपेक्षाकृत वैज्ञानिक सोच अधिक है,यही कारण है कि पूरे उत्तराखंड में चंपावत में सबसे अधिक दूध का उत्पादन किया जाता है। यदि यहां प्रयास किए जाएं तो हर क्षेत्र में प्रगति हो सकती है।